सोमवार, 27 सितंबर 2010

आदिवासी साहित्यक का फोरम के कार्यक्रम

आदिवासी फोरम के कार्यक्रम की तस्वीरें जिसमें वक्ता थे रामदयाल मुंडा जी 

1 टिप्पणी:

  1. स्त्री मुक्ति : संघर्ष और इतिहास के पृष्ठ 124 पर रमणिका दी ने ज़िक्र किया है कि उनकी पत्रिका युद्धरत आम आदमी के अंक 93 में 'खरी खरी बात' से लगता है कि कुछ लोगों में, खासकर पुरुष वर्ग में कुछ हलचल मच गयी है। इस सन्दर्भ में उन्होंने सुरेन्द्र नायक के पत्र की कुछ बातों का उल्लेख किया है। इन बातों मेँ "कुछ शंकाएँ, कुछ आरोप, कुछ प्रश्न , के अलावा एक चेतावनी है कि स्त्री अगर पुरुष के अहं से टकराएगी तो परिणाम विनाशकारी होंगे और एक सलाह कि अगर वह पुरुष के अहं को सहलाती रहे तो उसे कुत्ता बना कर पोस सकती है, और एक उलझन भी कि स्त्री वास्तव में चाहती क्या है?
    हिन्दी के साहित्यिक दायरों में स्त्री-विमर्श ही एक ऐसा अभागा विमर्श है जिसके प्रति सामान्यतः लगभग हिंसा तक पहुँची हुई असहिष्णुता का आमना सामना पड़ता रहता है। वजह शायद यह है कि इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, शरीर विज्ञान वगैरह वगैरह अनुशासनों के स्त्री-विमर्श को विशेषज्ञ किस्म के पाठक मिलते हैँ।वे अपने विषय-क्षेत्र को भी जानते हैँ और उसको स्त्री-विमर्श के विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में देख सकने की शब्दावली से लैस भी हैं। लेकिन साहित्य का स्त्री-विमर्श एक अलग किस्म का मैदान है जहाँ हर कोई रण-बाँकुरा है और जैसा कहा जाता है, 'द सबजेक्ट इज़ वुमन' तो हर कोई इस ' विषय ' का विशेषज्ञ होने का दम भर सकता है, भले ही न 'सबजेक्ट' का अर्थ 'गुलाम' जानता हो न स्त्री का अर्थ छटपटाहट। साहित्यिक स्त्री-विमर्श का सामना हिन्दी के उस सामान्य पाठक-वर्ग से होता है जिसकी प्रतिक्रिया के माध्यम से हम सामाजिक जीवन मेँ गहरे तक पैठी हुई असहिष्णुता, आक्रमकता और दुर्भावना के अन्य भी सारे पहलुओं की थाह सीधे पा सकते हैं और आगे के रास्ते की दुर्गमता का अन्दाज़ा लगा सकते हैँ। ठोस और वास्तविक परिस्थितियों में ज़िन्दा रहने की ठोस वास्तविक अनुभूतियों की इस अभिव्यक्ति के साथ दोचार होता हुआ हमारा यह पाठक समुदाय स्त्री की ज़रा सी करवट लेने की कोशिश से भी अपनी सत्ता और साम्राज्य को हिलता हुआ महसूस करके बौखला उठता है।
    न केवल शब्दों के संसार मेँ बल्कि वास्तविक जगत में भी नीतियों के निर्धारण, सरकारी गैर-सरकारी कार्यक्रम, चुनावी रणनीति, संघर्ष और आन्दोलन, हर कहीं यह विमर्शों का समय है, और यह आहत भावनाओं की राजनीति का समय भी है। मुँह से एक शब्द निकालने के पहले दो बार सोचना पड़ता है, यानी अगर आप दलित या अल्पसंख्यक या पिछड़े या अन्य किसी भी ऐसे समुदाय के बारे मेँ बात कर रहे हों जो स्वयं को किसी विशिष्ट अस्मिता के रूप में परिभाषित करने में लगा हो। प्रतिक्षण आपको अपनी नेकनीयत और सदाशयता का सबूत देने के लिये सजग रहना ही पड़ता है। लेकिन स्त्री-विमर्श के सिलसिले में किसी को इस बात से आशंकित होने की ज़रूरत नहीं कि स्त्री की भी कोइ भावना है या नहीं, आहत होगी या नहीं, होगी तो उसका नतीजा क्या होगा। उल्टा स्त्री-अस्मिता की सहज अभिव्यक्ति से न केवल पुरुष समाज बल्कि बड़े पैमाने पर स्वयं स्त्री समाज भी क्रुद्ध और आक्रामक होने को तैयार बैठा मिलता है। लगभग दस बारह वर्ष पहले एक सेमिनार के बाद एक युवा पत्रकार ने एक साक्षात्कार का पहला प्रश्नय मुझसे यह पूछा था, "जैसा कि बुज़ुर्गों का अन्देशा है, वाकई क्या दुनिया रसातल को जा रही है?” उसके स्वर से स्पष्ट था कि अन्देशा सिर्फ़ बुज़ुर्गों का नहीं, खुद उसका भी था और अन्देशे की वजह, सेमिनार का शीर्षक जो स्त्री के मुक्ति-अभियान से सम्बन्धित था।

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